बात 27 साल पहले इसी महीने की है। तारीख याद नहीं, लेकिन वह कोई जरूरी भी नहीं। पहली बार दिशा सामाजिक संगठन में एक केस स्टडी करने सहारनपुर जाना हुआ। मई की तपती दोपहरिया में पसीने से लथपथ दिशा के निर्माणाधीन परिसर में रिक्शा वाले ने छोड़ा। वहां मौजूद कुछ लोगों को परिचय दिया। किसी तरह शाम हुई। रात (शाम) के खाने के बाद एक सज्जन ने ठेठ सहारनपुरी लहजे में कहा: “थारे सोने का इंजाम ऊपर कर दिया है। ये ले टारच और पड़ जा।“
ऊपर पहुंच कर टॉर्च की रोशनी में देखा बनते हुए हाल में जहां-तहां निर्माण सामग्री बिखरी पड़ी थी। बिना दरवाजों की खिड़कियों से टॉर्च की रोशनी में बाहर देखने की कोशिश की लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। जैसे-तैसे रात कटी। सुबह का उजाला होते ही नीचे उतरा। सभी तीन चार लोग उठ चुके थे। उन्हें सज्जन ने पूछा: “नींद ठीक आई के ना।“ मैं चुप। वो बोले: “कोई ना। आज से यहीं चारपाई लग जाएगी।“ काफी राहत की बात थी मेरे लिए।
ये सज्जन थे रहतू लाल जी। अपने काम के बीच दिन भर उनको देखा। चाहे बनती हुई बिल्डिंग के लिए सामान देना हो, या खाने के लिए रसोइए को निर्देश देना हो, या नुक्कड़ नाटक टीम को समान देना हो, ताऊ जी के बिना किसी का काम नहीं चल रहा था। ताऊ जी बहुत व्यस्त थे, बिल्कुल मधुमक्खी की तरह। बीच में फुरसत मिलने पर चाय का एक प्याला और एक बीड़ी, और ताऊ जी अगले काम के लिए तैयार।
आने वाले समय में दिशा और खास तौर पर केएन तिवारी जी से पारिवारिक संबंध बन चुके थे। दो साल बाद सपरिवार दिशा जाना हुआ। तब तिवारी जी के घर पर रुकना हुआ। शाम को हम चारों प्राणी दिशा परिसर घूमने गए। वहां ताऊ जी बच्चों के साथ घुल-मिल गए। अपने पिटारे से उन्होंने कठपुतली निकली और हम सब को चलाकर दिखाई। खास तौर पर बच्चे अभी भी एक डायलाग याद करते हैं। जब एक कठपुतली ने दूसरी कठपुतली (जोखिम चाचा) से पूछा तुम्हारी उम्र क्या है तो जोखिम चाचा ने कहा: “मेरी उम्र… तकरीबन… तकरीबन… साढ़े तीन सौ साल है।“
ताऊ जी अपनी और मेरी पहली मुलाकात की पोल बीवी-बच्चों के बीच कुछ यूं खोली। “मैं सोच्या कि लौंडा तगड़ा है और (इशारा करते हुए) वहां सुला दिया। मेरे को क्या पता था कि डरपोक निकलेगा। आगे से यहीं चारपाई लगवा दी।“ लखनऊ से गए बीवी-बच्चों को लौंडा शब्द पर घोर आपत्ति थी। उन्हें नहीं पता था कि वहां यह नॉर्मल था।
आने वाले सालों में ताऊ जी के साथ रिश्ता गहराता गया। उनके व्यक्तित्व के तमाम आयाम थे एक गर्वीले किसान, परिवार के ध्यान रखने वाले मुखिया, कुशल प्रबंधक, किस्सों-कहानियों का भंडार…। ठंड के दिनों में सुबह- सुबह खेत जोतकर आठ बजे तक संस्था के काम के लिए तैयार। खुद चाहे कितने दुखों में हों सामने वाले के लटके हुए चेहरे पर मुस्कान लाने में उनको जरा भी देर नहीं लगती थी।
तीन साल पहले नवंबर की शुरुआत में दिशा जाने का कार्यक्रम बना था। 4 तारीख भी तय थी। घर पर कहा गया कि ताऊ जी से बिना मसाले (केमिकल) के गुड़ के लिए बोल दो। मैंने ताऊ जी को फोन लगाया। जवाब था: “अरे अपना घर है। चार को आओ, साढ़े चार को आओ, पौने पाँच को आओ… बस दो दिन पहले बात देना, सामान तैयार हो जाएगा।“
वह चार (साढ़े चार, पौने पाँच) तारीख अभी तक नहीं आई। अब कभी आएगी भी नहीं। 11 मई को ताऊ जी हम सबको छोड़कर, कोविड से नहीं, चले गए। आप हमेशा हमारी यादों में रहेंगे ताऊ जी।
बहुत सुन्दर आत्मकथा और उतना ही सुन्दर चित्रण व्यक्ति चला जाता है और उनकी स्मृतिया ही शेष रह जाती है।
ताऊजी जी की एक कहानी आज भी याद है ( ताई और ताऊजी की शादी बेमेल ऐसी की ट्रैक्टर की आगे पीछे के पहिये) यह हम सब को मालूम था वो हसाने के लिए ही सुनाते थे ।
आप जैसे ज़िंदादिल इंसान कम ही हैं ताऊजी
ईश्वर आपको अपने चरणो में स्थान दें ।
व्यक्ति धन और रईसी से नही बल्कि अपने भावों से यादगार बन जाता है, ताऊ ने निश्छल भाव से आपका स्वागत किया था और आपके लिए यादगार बन गये। ऐसे ताऊ को विनम्र श्रद्धांजलि।बहुत याद आओगे ताऊ, ईश्वर आपको अपने श्री चरणों में स्थान दे। पुनः नमन।