लोक सभा चुनाव के शुरू होने से लेकर खतम होने तक क्या आपने सुना कि ग्रामीण क्षेत्रों में पाँच साल में नल के पानी की उपलब्धता वाले घर 17 प्रतिशत से बढ़कर 77 प्रतिशत हो गए? या 2017 से 2023 के बीच 2.6 करोड़ घरों को पहली बार बिजली मिली? या 2016 से अब तक 12 करोड़ नए गैस कनेक्शन जारी किए गए (कई परिवार सिलिन्डर भरवा नहीं रहे, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है)? या फिर कि खुले में शौच से मुक्ति (ओडीएफ) परियोजना की अगली कड़ी आने वाली है जो पहली ओडीएफ की अंतिम मील की विफलता को सुधारने की कोशिश होगी?
शायद कभी नहीं। या तो इन पर बातें की नहीं गईं या फिर ये दूसरी बातों — मुस्लिम आरक्षण, संविधान में बदलाव के डर, नवरात्रि में मांसाहार, पाकिस्तान किस पार्टी को जीतते देखना चाहता है… — के शोर में ऐसी बातें कहीं गुम हो गईं।
दूसरे पक्ष का व्यवहार
यह सिर्फ एक पार्टी तक सीमित नहीं था। क्या आपसे कभी किसी ने कहा कि आप उस गठबंधन को वोट करें जिसने शासन में पारदर्शिता के लिए सबसे प्रभावी कानून — सूचना का अधिकार — को बनाया। या उस पार्टी को वोट करें जिसने अपनी तरह की सबसे बड़ी रोजगार की योजना — मनरेगा शुरू की? या उस गठबंधन को वोट करें जिसने यूनीक आइडेंटीफिकेशन प्रणाली (यूआईडी) के बीज बोए जो आगे चलकर आधार और आज के डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को संचालित करता है।
पुनः शायद कभी नहीं। क्यों ऐसा हुआ कि मानव इतिहास में सबसे बड़ी राजनीतिक बिक्री — 18वीं लोक सभा का चुनाव जीतने के लिए 97 करोड़ लोगों के बीच प्रचार करना — विकास के मुद्दों पर इतना कम और हताशा पर इतना अधिक कैसे रहा? वह भी ऐसे देश में जिसका सबसे बड़ा निर्यात दिमागी शक्ति (ब्रेन पावर) है, एक ऐसा देश जो चरम निर्धनता को खतम करने की कगार पर है, और जिसका प्राथमिक स्तर पर 100 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात और माध्यमिक स्तर पर 80 प्रतिशत है।
क्या हम भारतीय विजन के बजाए डर के कारण वोट करते हैं। या नेताओं को दूसरों के वास्तविक और काल्पनिक कुकृत्यों को अपने कृत्यों की तुलना में बेचना आसान लगता है। एक बार राम विलास पासवान जो एनडीए और यूपीए सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे थे एक चुनावी सभा में अपने विकास की पहलों में बता रहे थे और श्रोता जमहाइयाँ ले रहे थे। जैसे ही उन्होंने पाकिस्तान में भारत के 2019 के हमले की बात शुरू की भीड़ जोश से भर गई। इसमें कोई शक नहीं कि लोग भावनाओं में आसानी से बह जाते हैं।
हम क्या कर सकते हैं?
दुनिया के सबसे बड़ी प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को कम शोर-शराबे वाला और कुछ ठोस बनाने के लिए क्या किया जा सकता है? कई सारी चीजें। पहला, चुनाव को इतनी गरमी में इतना लंबा नहीं होना चाहिए। नेताओं के पास कही जाने वाली चीजें खतम हो जाती हैं। मतदाता भ्रमित और असंबद्ध हो जाते हैं और शासन का काम महीनों तक शिथिल रहता है। साल 1999 में लोक सभा का चुनाव दो चरणों में हुआ था।
दूसरा चुनावों की संख्या कम की जानी चाहिए। राष्ट्रपति कलाम ने राजनीतिज्ञों से कहा था कि वे 70 प्रतिशत समय ‘राजनैतिक राजनीति’ और 30 प्रतिशत समय ‘विकास राजनीति’ करने को पूरी तरह से उलट दें। इसका मतलब होगा चुनावों की कम संख्या — आदर्श स्थिति होगी एक राष्ट्र एक चुनाव।
देश में 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। उसके बाद एक साथ नहीं हो सके और वे चुनाव अभी भी पटरी से उतरे हुए हैं। चार राज्यों के चुनाव लोक सभा चुनावों के साथ हो चुके हैं। दो राज्यों के चुनाव इसी साल के अंत में होंगे। तीन राज्यों के चुनाव 2025 में होंगे, 5 के 2026 में, 7 के 2027 में और 9 के 2028 में। और इसके बाद फिर से 2029 से फिर यही चक्र चल जाएगा अगर चुनावों की संख्या कम करने के लिए कुछ नहीं किया गया तो। और बीच में हर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव और नगर निकाय चुनाव भी होंगे ही।
बुनियादी पहल
तीसरा, कुछ बुनियादी पहल भी होनी चाहिए। सभी 543 निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं का अपना मैनिफेस्टो होना चाहिए जिसमें बिल्कुल स्थानीय, शहर, राज्य और देश के मुद्दे शामिल होने चाहिए जिन्हें वे संबोधित करना चाहते हैं। हर क्षेत्र के प्रत्याशियों को अनिवार्य रूप से बताना चाहिए कि इन मुद्दों पर उनकी क्या राय है। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि चुनाव के वादे और अभियान वास्तविक मुद्दों से जुड़े रहें।
क्या आपने किसी पार्टी को ऐसी समय-सीमा (डेडलाइन) देते हुए सुना है कि अगले पाँच सालों, जैसे कि 2029 तक वायु प्रदूषण आधा करेगी? गलत दिशा में गाड़ी चलाने को अगले पाँच सालों में पूरी तरह से खतम कर देगी (इससे 2023 में 5,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और 12,000 से ज्यादा घायल हुए)? हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सभी लंबित मामलों को तीन सालों में और निचली अदालतों में पाँच सालों में खतम कर देंगे?
बेशक आपने ऐसा नहीं सुना है। और यह तब तक नहीं होगा जब तक हम वोटर मामलों को अपने हाथों में नहीं लेंगे और पार्टियों को हमारे अपने मैनिफेस्टो पर कार्यवाही करने के लिए मजबूर नहीं करेंगे। यहाँ पर हमें अपनी भूमिका तलाशनी पड़ेगी।